होली (Holi 2019) रंगों का त्योहार है। बु'राई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन बु'राई के रूप में होलिका का दहन हुआ था और अच्छाई की जीत के भगवान के भक्त प्रह्लाद का होली की आ'ग से बाल भी बांका नहीं हुआ था। मगर क्या आप जानते हैं कि पौराणिक काल में किस स्थान पर होलिका ज'ली थी। मान्यता है कि इस त्योहार को मनाने की शुरुआत बिहार के पूर्णिया जिले से हुई थी।
पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में आज भी वह स्थान मौजूद हैं, जहां असली में होलिका भक्त प्रह्लाद को लेकर ज'ली थी। मान्यता है कि इसी स्थान पर होलिका अपने भाई हिरण्यकश्यप के कहने पर भक्त प्रह्लाद को लेकर जलती चि'ता पर बैठ गई थी। दावा किया जाता है कि यहीं पर वह खंभा भी मौजूद जहां से भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप का व'ध किया था।
सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का किला था और यहीं पर भक्त प्रह्ललाद अपने पिता के साथ रहता था। बताते हैं कि इसी किले में वह माणिक्य खंभा भी स्थित है, जिसको तोड़कर नरसिंह भगवान प्रकट हुए थे। यहां के स्थानीय बुजुर्गों का कहना है कि यहां उस काल के टीले आज भी मौजूद हैं। हालांकि अब ये सिमटकर काफी कम रह गए हैं।
हरदोई से भी है हिरण्यकश्यप का नाता
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पूरे देश में भिन्न-भिन्न रूपों में मनाए जाने वाले होली पर्व में होलिका दहन की शुरुआत हरदोई से ही हुई थी। पूर्व में हिरण्यकश्यप की नगरी थी हरदोई और वह हरि का द्रो'ही था इसलिए उन्होंने इसका नाम हरिद्रो'ही रखा था। उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान हरि का भक्त था और उसी को मा'रने के लिए हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को उसकी गोद में अग्नि कुंड में बैठाया था। होलिका को वरदान था कि आ'ग से वह नहीं जलेंगी। होलिका भक्त प्रह्लाद को अग्निकुंड में लेकर बैठ गई। जिसमें होलिका आग में भ'स्म हो गई और भक्त प्रह्लाद को भगवान विष्णु ने बचा लिया।
हिरण्यकश्यप किले के कुछ अवशेष अभी भी है। होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी। प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। जिससे परेशान हिरण्यकश्यप ने उससे छुटकारा पाने के लिए उसे नदी में डुबोया, पहाड़ से गिरवाया किन्तु उसका बाल भी बांका नहीं हुआ। इसलिए हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन को प्रह्लाद को मा'रने के लिए आ'ग में लेकर बैठने की आज्ञा यह सोचकर दी कि होलिका को यह वरदान था कि आग में वह नहीं जलेगी और प्रह्लाद की जलकर मौ'त हो जाएगी। बुआ होलिका ने प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश किया।
ईश्वर कृपा से प्रह्लाद बच गए और होलिका जल गई। होलिका के अंत की खुशी में होली का उत्सव मनाया जाता है। कहा जाता है नरसिंह भगवान का क्रो'ध इतना प्रबल था कि हिरण्यकश्यप को मा'र डालने के बाद भी कई दिनों तक वे क्रो'धित रहे। अंत में, भगवती लक्ष्मी ने प्रह्लाद से सहायता मांगी और वह तब तक भगवान विष्णु का जप करते रहे जब तक कि वे शांत न हो गए। आज उन्हें हरदोई श्रवण देवी मंदिर में शांत स्वरूप में देखा जा सकता है। यहां भक्त प्रह्लाद घाट व नरसिंह मन्दिर भी है। इस घटना की याद में प्रतिवर्ष फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को ये पर्व होली के नाम से मनाया जाता है।
दक्षिण भारत में होती है विशेष पूजा
नरसिंह भगवान को पुराणों में भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जिनका सिर एवं धड़ तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे। दक्षिण भारत के वैष्णव संप्रदाय में भगवान नरसिंह को सं'कट में रक्षा करने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। दक्षिण भारत के साथ-साथ हरदोई जिले में बना नरसिंह भगवान का यह मंदिर के लक्षण एवं अद्वितीय है बताते चलें प्रभु के प्रकट होने का असली स्थान हरदोई ही है इस मंदिर के ठीक सामने ऊंचा थोक जिसे कभी हिरणाकश्यप का किला कहा जाता था बसा हुआ है।
अग्निपुंज की परिक्रमा
होली के संबंध एक और जनश्रुति है। प्राचीन काल में फागुन में पकी-गेहूं, जौ, चना अलसी आदि फसल का उपभोग करने के पूर्व किसान उसे अग्निदेव को समर्पित करते थे। आज भी अग्निपुंज की परिक्रमा करते हुए गेहूं, जौ, आदि को अग्नि में डालते हैं और होली माता तथा भक्त प्रह्लाद की जय बोलते हैं, अगले दिन रंग डालने और गालों पर गुलाल लगाने का कार्य बहुत ही उत्साह और उल्लास से होता है। शाम को लोग गले मिलते हैं और एक दुसरे को गुजिया खिलाते हैं। ये पर्व हमारी एकता और अखंडता को बल प्रदान करता रहा है।
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